رجل في العقد الثامن من عمره يجلس وسط اكوام من الاوراق والكتب. وفتاة في العقد الثالث من عمرها تقف في الجانب المقابل.. وابتسامة عريضة.
الفتاة : هذا هو أنت كما توقعتك تماما ؟
الرجل (مندهشا) : من أنت وكيف وصلت الى هنا ؟
الفتاة : الا ترحب بي أولا.. أهكذا يقابل أديب مثلك سيدة ما ؟
الرجل : وتعرفينني ايضا ؟
الفتاة : وهل يخفى القمر ؟
الرجل : يا الهي أكل سؤال ألقيه تأتيني الاجابة بسؤال أخر ؟
الفتاة : وهل يضايقك هذا ؟
الرجل : والا يضايق الانسان الا يجد اجابات لأسئلته ؟
الفتاة : أي انسان أم تقصد انسانا مثلك ؟
الرجل : وهل هناك فرق ؟
الفتاة : بالطبع هناك.. ولكن قل لي ألم تلاحظ شيئا ؟
الرجل : ماذا ؟
الفتاة : انك انت الآخر لم تكف عن القاء الاسئلة ؟
الرجل : أو لست انت سبب كل هذه التساؤلات ؟
الفتاة (ضاحكة ) : ها أنت تعود لالقاء الاسئلة.
الرجل : حسنا.. لنعقد اتفاقا.
الفتاة : وهو.
الرجل : أن تكشفي عن هويتك دون اي سفسطة.
الفتاة : وهل أنا لغز لأنكشف ؟
الرجل (محذرا) : علام اتفقنا ؟
الفتاة : اعتذر.. حسنا ماذا تريد ان تعرف ؟
الرجل : هويتك.
الفتاة : اي بيانات تريد ؟
المكتوبة على البطاقة الشخصية.. انا لا
اعترف بها.. ثم اني لا احمل بطاقتي معي.
الرجل : الا تحفظين من تكونين ؟
الفتاة : أنا لا أحفظ وانما اعرف.
الرجل : وماذا تعرفين ؟
الفتاة : اعرف اسمي وعمري وعنواني وفصيلة دمي واحتفل بعيد ميلادي.
الرجل : وما اسمك ؟
الفتاة : اي اسم تريد.. انا لا اعترف بالاسم الذي اطلقه علي الآخرون.. انه لا يعجبني.. وهل من اهمية لذلك لديك ؟
الرجل : انه المدخل لشخصية كل انسان.
الفتاة : ربما لشخصيات القصص والروايات.. لانك ترف مسبقا ما سيحدث للشخصيات فتسميها بما يليق لدورها.
الرجل : على الاقل.. اعطني اسما كبطاقة تعارف بيننا.
الفتاة : حسنا.. سمني (سرابا).
الرجل : (مندهشا) : ولماذا سراب ؟
الفتاة : لأنني آجلا سأصبح مجرد سراب.. سأختفي اذا اقتربت مني.. او لعله الاسم الذي يليق بي او هو المدخل كما سميته.. ولكن قل لي لماذا ادهشك هذا الاسم ؟
الرجل : لانه اسم أليف لدي.
الفتاة : بل حميم اثير.
الرجل : اتعرفين صلتي به ؟
الفتاة : اذا كنت تقصد (سراب عفان) فنعم.
الرجل : يبدو انك تعرفين عني الكثير.
الفتاة : وكيف أحاورك وانا لا اعرف عنك شيئا ؟.. ولكني سأخبرك شيئا آخر عودة الى سراب.. برغم انها سراب… الا انها خلقت داخلي توترا وقلقا اجهدني لليال كثيرة.
الرجل : لماذا ؟
الفتاة : انت تسأل لماذا.. وانت الذي خلقت فيها وفينا كل ذلك التوتر.
الرجل : ماذا تعنين بـ (فينا) ؟
الفتاة : نحن النساء.. او بالاحرى من قرأن لك.. هل تتخيل اي تأثير ستحدثه رواياتك في حياتنا عندما تكتبها أتعرف أي صراع تثيره في دواخلنا.. اي شك يزعزع ثوابتنا إنك لا تتخيل منذ متى وانا أتمنى ان ألقاك.
الرجل : منذ متى ؟
الفتاة : منذ قرأت روايتك الأولى التي لا اذكر متى قرأتها.. لقد قرأت اغلب ما قرأت لك في فترة واحدة.. وقرأتها وانا أتمنى عند كل سطر ان اناقشك.. ان اعترض.. او أضيف.
الرجل : ولماذا لم تفعلي ؟
الفتاة : لانني لم أكن اعرف لك عنوانا ثابتا.
الرجل : والآن ؟
الفتاة : اصبح لك عنوان واحد لا تستطيع ان تغيره.
الرجل : (بحزن) : تقصدين بعد موتي ؟
الفتاة : لا تقل هذا.. انك لم تمت.
الرجل : وانما… ؟
الفتاة : رحلت.. انه رحيل شكلي.. لا اعرف ربما غاب جسدك.. لكنك باق.. فرجاء لا تذكر سيرة الموت مرة أخرى.
الرجل : هل المح حزنا في عينيك.. (بتعجب).
الفتاة : ولماذا تقولها باستغراب.. اتستنكر حزننا عليك.
الرجل : ومن انتم ؟
الفتاة : كلنا.. من عرفناك.. والتقينا بك عبر كتبك او من كان سعيد الحظ والتقاك.. انك لا تعرف اي حزن لف الاوساط الادبية وكيف نشرت الصحف خبر رحيلك أو كيف بثته الاذاعات.. تمنيت ساعتها لو كنت في الوطن.
الرجل : وأين كنت ؟
الفتاة : في عالم لا يتحدث لغتنا ولا يقرأ معظم سكانه ادبنا.. وسمعت الخبر مع أحدى صديقاتي وهي تقود سيارتها من أحدى الاذاعات العربية.. احسست بالحاجة في أن أقول شيئا ما.. لم تفهمني.. لم تعرف عمن اتحدث.. كنت أريد من يعزيني فيك.. ولكنها لم تفهم.
الرجل : الهذه الدرجة أكون (نكرة).
الفتاة : بل هي الجاهلة.. وكف عن هذا التواضع المتكلف.. (بخبث).
الرجل : اتتهمينني بالتكلف.
الفتاة : معاذ الله يا سيدي.. ولكنك تعرف اي (علم) انت.. وتعرف بأن الكثيرين فجعوا بخبر رحيلك من احبوك واحبوا ما تكتب.
الرجل : وهل أنت منهم ؟
الفتاة : من ؟
الرجل : الذين أحبوني.
الفتاة : أنا من احبوا ما تكتب.
الرجل : ولم تحبينني.
الفتاة : يا سيدي انا لم أعرفك شخصيا.. ولم ألتق بك.. فكيف يمكن ان احبك.
الرجل : وماذا لو رأيتني والتقيت بي ؟
الفتاة : لا اعرف.. لقد كنت أتمنى ان ألتقي بك فعلا.. وحاولت أن أبعث اليك.
الرجل : وماذا كنت ستكتبين ؟
الفتاة : أشياء كثيرة.. لكن أهمها بالتأكيد عن مؤلفاتك وتأثيرها في واعجابي بالشخصيات التي تكتب عنها وكيف استطعت سبر اغرار المرأة الى هذا الحد البعيد.
الرجل : فقط ؟
الفتاة : وماذا تريد اكثر.. ولكن الأهم كان خيالي المتفائل بانك رددت على رسالتي يا الهي كنت أتخيل وأحس بالسعادة وكأني مراهقة تنتظر..
الرجل : لماذا توقفت.. اكملي.. تنتظر رسالة من حبيبها.
الفتاة : نعم.. وكانت الورطة لو كنت كأحد أبطال رواياتك.
الرجل : وما بهم ابطال رواياتي ؟
الفتاة : مثقفون.. اذكياء.. يعرفون كيف يعاملون المرأة.. وسيمون كما اتخيلهم من الصعب مقاومتهم..
الرجل : وهل تخافين من الوقوع في حبي ؟
الفتاة : أنا لا اخاف.. ربما انت.
الرجل : ولماذا أخاف الوقوع في حب أحدى الجميلات ؟
الفتاة : لانني لست امرأة جميلة فقط.. ككل بطلات رواياتك.. هن الاخريات لم يكن مجرد جميلات.
الرجل : فما الورطة اذن.. اذا كنت كأبطالي وكنت كبطلاتي.
الفتاة : انا اختلف عنهن.. انا امرأة أخرى.. لا تبتسم هذه الابتسامة الساخرة.. اعرف بأنك تقول: إن كل النساء متشابهات وكلهن يزعمن بأنهن يختلفن عن الأخريات.
الرجل : حسنا.
الفتاة : وهذا صحيح.. ولكن لا توجد امرأة تشبه الاخري في كل شيء.. وانت ادري بهذا الشأن.. لانه لولا اختلافهن لما كتبت روايات مختلفة ابطالها نساء والحقيقة انك تستمد كتاباتك من وجود هذه الاختلافات.
الرجل : حسنا.. اخبريني الآن فيما تختلفين انت عمن كتبت.
الفتاة : لا تعجبني نهاياتهن.. انهن ينفجرن بعد كبت ثم يختفين.. يهربن الى عوالم أخرى – ينتحرن – او يتلاشين.. كلهن (سراب).
الرجل : هذه الحياة.
الفتاة : لا هذا أنت.. لا أحد يصمد الا البطل.. والبطل هو أنت.. انت من يبقى.. وانا من يختفي.
الرجل : ولماذا أنت ؟
ألم تقولي بانك تختلفين عنهن.. اي انك ستصمدين.. ستتحدين البطل.
الفتاة : وما الفائدة اذا كنت انت البطل ؟
الرجل : لم أفهم.
الفتاة : أنت المؤلف.. ستنتصر لنفسك ألست البطل ؟
الرجل : ولماذا لا تكتبينها انت ؟
الفتاة : وهل تضمن عدم انحيازي.
الرجل : حسنا فليكتب كل الجزء الخاص به.
الفتاة : رواية مشتركة أخرى.. كانت تجربة لذيذة.. كنت بسهولة استطيع معرفة ما كتبت..
الرجل : الهذه الدرجة كنت مفضوحا.. ربما كنت كاتبا سيئا.
الفتاة : لانك انت هو انت.. عموما رغم كل اسئلتك.. لم تسألني كيف عبرت اليك ولماذا ؟
الرجل : سألتك وتشعبت بنا الاحاديث..
الفتاة : اعتذر.. ربما كانت احاديث مزعجة.. فهي خلاف ما تعودت.. ولكنني لم آت الى هنا.. لأكرر ما كتبت عنه وما كتبته الصحف عن فنك ونقدك وادبك وترجمتك.
الرجل : ولماذا جئت اذن ؟
الفتاة : بحثا عن حديث آخر لم تكتبه صحيفة.. ولم تدل به في اي حوار اذاعي.. في الحقيقة لم آت لاسمعك.. بالقدر الذي رجوت ان تسمعني.. كنت اريد ان احدثك عني.. عن حياتي.. واحلامي -بصراحة – كنت اريد ان تكتب عني.
الرجل : وماذا تريدين ان أكتب عنك ؟
الفتاة : أي شي ء.. كل شي ء.. لا اعرف.. اريدك ان تكتب عن مشاعري وافكاري عن اخفاقاتي وانجازاتي – ان كانت لي – أريدك أن تكتب عن حياتي البائسة والسعيدة ربما كنت سعيدة لا اذكر.. انك محظوظ بأن رحلت عن هذا العالم الذي لم يزدد الا (صخبا وعنفا) منذ ذلك الزمن الذي نقلت عنه وقتي فنائنا.
الرجل : يا الهي.. حتى من الموت لم اخل من الحسد.
الفتاة : هل احسدك – ربما.. لا انا لا أريد ان أموت.. أحس بأني لابد ان افعل شيئا قبل ذلك.. أن احقق ما يحفظني قبل الرحيل مثلك.. اني احسدك : كيف استطعت الالمام بكل تلك الفنون والقراءات والكتابات.. ترى هل استطيع ان اكون مثلك.
الرجل : المهم أن تكوني ما تريدين وليس كأي شخص آخر.
الفتاة : حتى وان كنت أريد ان اكون مثلك.
الرجل : نعم.. فانت لا تستطيعين ان تكوني الا نفسك.. ربما ستكونين مثلي وربما تكونين أفضل في جوانب ما.. ولكن.
الفتاة : على رسلك.. انا لا أريد أن أكون نسخة منك او من اي احد.
الرجل : وهل ترفضين أن تكوني مثلي تماما.
الفتاة : بالطبع أرفض.. انه ليس رفضا فقط.. انه استنكار.. وا عجبي ألست أنت قبل قليل من يريدني أن أكون نفسي.
الرجل (يبتسم ) :….
الفتاة : ما بك ؟… انك تحاول استفزازي.. حسنا اعترف انا استفز بسهولة.. فلا تفعل بي ذلك مرة أخرى.. رجاء.
الرجل : انك عجيبة يا فتاتي !
الفتاة : ولماذا العجب ؟
الرجل : لاني لم أعرف هل انت بائسة ام سعيدة.. ماذا تريدين.. وبماذا تحلمين ولماذا تحملين كل هذا الغضب.. لم كل هذا التحدي.
الفتاة : آه يا سيدي.. انك تفتح علي ابوابا.. لم تقفل تماما.. كل يوم يتسرب الي ألم ما.. واليوم تحاول أن تغرقني به.. انا لا اعرف نفسي.. أني كل يوم بوجه.. بشعور.. بتبرير جديد للحياة.. اني كل يوم أريد شيئا لاني لم أحصل على ما تمنيته في الامس.. ماذا تريد بعد ؟
الرجل : أنا لم أعد اريد شيئا.. بل انت.
الفتاة : نعم أنا أريد.. أنا أحلم.. أتذكر.. أحلامي المفقودة.. وأحلامي الغائبة.. وتلك التي اغتيلت.. وتلك التي سرقت.. واحلامي التي لم تولد بعد.. انك تسألني عن الغضب.. وأي شيء لا يبعث على الغضب.. وأنت ألم تكتب ما كتبت الا لانك كنت غاضبا.. واي غضب لا يبعث على التحدي.. ولكن التحدي الذي داخلي يهتز.. يقرع.. ينفي.. كلنا منفيون.
الرجل : نعم كلنا منفيون.. صدقت.
الفتاة : وكلنا يطفح بالغربة.. وننكفيء على أنفسنا ونحلم ونبكي.. ولا اعرف لماذا نظل،حلم رغم كل الانكسارات.
الرجل : ولماذا تخلطين بين الحلم والواقع ؟
الفتاة : وهل استطعت انت ان تفصل بينهما.
الرجل : كان ضرورة فنية.
الفتاة : بل ضرورة حياتية.. لو لم تفعل ذلك مت.
الرجل : أو لست كذلك الآن ؟
الفتاة : لا اعتقد بأنك كففت عن الحلم.. لقد زرعت افكارك وكل شيء في دماغك في أدمغتنا الصغيرة.. هل فعلت ذلك بقصد.. لماذا فعلت ذلك ؟
الرجل : لاننا في الاصل دماغ واحد.. وقلب واحد.. واحلامنا متشابهة..
الفتاة : الا زلت تؤمن بذلك رغم كل هذا التشبث ؟
الرجل : هذا التشتت يؤكد لي ذلك.. فلو كنا مختلفين لاختلفنا عن ذلك.
الفتاة : وما الذي أتى بي اليك… الاختلاف أم التشابه ؟
الرجل : التشابه أولا. ثم الإختلاف.
الفتاة : أتشرح لي قليلا.. فلم اعد قادرة على التفكير.
الرجل : لو لم نكن نتشابه في شيء لما أتيت لتتحدثي الي.
الفتاة : حسنا.. نحن نتشابه لانني احببت أدبك.
الرجل : ولكنك تختلفين عني في وجهات النظر.. فأنت تعترضين على مسار الشخصيات.. تنتقدين جوانب معينة.. تغضبين.. وتعجبين.. تحبين.. وتكرهين.
الفتاة : نعم هذا ما أتى بي رغم التشتت. رغم البعد.. رغم الفارق.
الرجل : رغم الموت.
الفتاة : اذن ماذا علينا أن نفعل ؟
الرجل : من ؟
الفتاة : نحن المنفيين.
الرجل : نحتاج الى كثير من الحرية قبل الطوفان.
الفتاة : واذا سبق السيف العذل.
الرجل : يجب ان يكون السيف بأيدينا.
الفتاة واذا لم يكن..
الرجل : لماذا كل هذا التشاؤم ؟
الفتاة : هذا الواقع.
الرجل : ألم تسمعي بالطريق ذي الاتجاه الواحد.
الفتاة : والى متى سنطل نمشي ؟
الرجل : الى ان نصل..
الفتاة : أو نموت.
الرجل : انك طفلة.. الطريق لا يزال طويلا.
الفتاة : أنتم من كنتم تولدون اطفالا ثم تشبون وتنضجون.. اما نحن فنولد محرومين طفولتنا، ولا نعي مرور شبابنا.. انت تشعر براحة الضمير لأنك أديت ما عليك على أتم وجه.
الرجل : وما الذي يقلقك أنت ؟
الفتاة : هل سأكون مرتاحة الضمير ذات يوم.. أريد أن أتحرر. تعبت.
الرجل : مم ؟
الفتاة : من الخوف.. من الترقب.
الرجل : وماذا يخيفك.. وماذا تترقبين ؟
الفتاة : أخاف من كل شي ء.. وأترقب كل مجهول.
الرجل : وهل أنت ضعيفة لهذا الحد تخافين من كل شي ء.. ويهزك كل مجهول.
الفتاة : أنا لست ضعيفة.
الرجل : وبماذا تفسرين خوفك وتوجسك ؟
الفتاة : انه ليس الخوف الذي تظن ؟
الرجل : وما الخوف الذي أظن ؟
الفتاة : بأني لا استطيع مواجهة الحياة.. او الوقوف امام اي جديد.
الرجل : وانما…
الفتاة : خوفي أن أترك العالم دون ان انجز شيئا.. هل سأؤدي ما علي.. هل سأكون أم لا.. ماذا هناك.. ماذا بعد.. لا تصفني بالضعف.. انك تغضبني..
الرجل : أفضل ان أراك غاضبة لا بائسة.
الفتاة : وهل سيحدث هذا تغييرا ؟
الرجل : بالتأكيد فالياس يعني انك عاجزة.. والغضب يعني انك ستثبتين للتحدي الذي تنضح به عيناك.
الفتاة (تتنهد) : وهل يجعلك هذا سعيدا ؟
الرجل : بالطبع فهذا يعني لم يغب ما كتبته ادراج الرياح، واني لا أزال أحلم.. وهذا يحافظ على التشابه بيننا.
الفتاة : وهل يسعدك حقا ان نكون متشابهين ؟
الرجل : الا يسعدك أنت ؟
الفتاة : بلى.. ولكن يهمني ان اسع اجابتك ؟
الرجل : ولماذا ؟
الفتاة : يهمني معرفة ان تشابهي مع شخص ما يجعله سعيدا.
الرجل : وهل أنا شخص ما ؟
الفتاة : حاشا لله (مبتسمة).
الرجل : وتكونين أجمل عندما تبتسمين.
الفتاة : يجب أن أذهب الآن.
الرجل : هكذا.. تختفين دون ان تخبريني من تكونين.
الفتاة : ألم أقل لك بأني سراب.
الرجل : أنت لست سرابا.. ولا تحاولي اقناعي بوجود سراب.
الفتاة : ألست أنت من أقنعنا بوجودها.. عموما فاذا كنت في الجنة فاعتبرني أحدى الحور. الرجل : واذا لم أكن.
الفتاة : أنا لا أكون الا هناك.
رفيعة الطالعي (كاتبة عمانية)